देवनागरी लिपि कय पहिला वर्ण अव संस्कृत, हिंदी, मराठी, नेपाली आदि भाषन् कय वर्णमाला कय पहिला अक्षर अव ध्वनि होय। इ एक स्वर होय। ई कंठ्य वर्ण होय।एकर उच्चारण स्थान कंठ होय। एकरे ध्वनि कय भाषाविज्ञान में श्वा कही जात है।

ई संस्कृत अव भारत कय कुल प्रादेशिक भाषन् कय वर्णमाला कय पहिला अक्षर होय। इब्राली भाषा कय 'अलेफ्', यूनानी कय 'अल्फा' औ लातिनी, इतालीय अव अंग्रेजी कय ए (A) एकर समकक्ष होँय।

अक्षरन् में ई सबसे बडा मानि जात अहै। उपनिषदन् में एकर बडा महिमा लिखा है। तंत्रशास्त्र कय अनुसार ई वर्णमाला कय पहीला अक्षर एकरे नाते है कि ई सृष्टि उत्पन्न करेस पहीले सृष्टिवर्त कय आकुल अवस्था कय सूचित करत है।[]

श्रीमद्भग्वद्गीता में कृष्ण अपने आप कय अक्षरन् में अकार कहत हैं- 'अक्षराणामकारोस्मि'।

उच्चारण

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पाणिनि कय अनुसार एकर उच्चारण कंठ से होत है। उच्चारण कय अनुसार संस्कृत में एकर अट्ठारह भेद हैं:-

  • (१) सानुनासिक :
ह्रस्व उदात्त अनुदात्त स्वरित
दीर्घ उदात्त अनुदात्त स्वरित
प्लुत उदात्त अनुदात्त स्वरित
  • (२) निरनुनासिक :
ह्रस्व उदात्त अनुदात्त स्वरित
दीर्घ उदात्त अनुदात्त स्वरित
प्लुत उदात्त अनुदात्त स्वरित

हिंदी अव अउर भारतीय भाषन् में अ कय दुइय उच्चारण है ह्रस्व औ दीर्घ। खालि पर्वतीय प्रदेशन् में, जहाँ दूर से मनईन् कय बोलावे या संबोधन करेक् परत है, प्लुत कय प्रयोग होत है। इ उच्चारणन् कय क्रमश अ, अ और अ से व्यक्त कई सका जात है। दीर्घ करेक लिए अ कय आगे एक खड़ा पाति जोड़ देत हैं जवने से ओकर आकार आ होई जात है। संस्कृत अव ओसे संबद्ध कुल भाषन् कय व्यंजन में अ समाहित होत है औ ओकरे सहायता से ही ओन्हन कय पुरा उच्चारण होत है। उदाहरण का लिए, क= क्+ अ; ख= ख्+ अ, आदि। वास्तव में कुल व्यंजन कय व्यक्त करय वाले अक्षरन् कय रचना में अ खडा रहत है। अ कय प्रतीक खड़ा रेखा () है जवन व्यंजन कय दक्खीन, मध्य अव ऊप्पर भाग मा रहत है, जैसय क में बिचे में है; ख, ग, घ में दक्खीन भाग में अव ङ , छ , ट आदि में ऊप्पर भाग में है।

अ स्वर कय रचना कय बारे में वर्णोद्धारतंत्र में उल्लेख है।

चौथा शत ई. पू. कय ब्राह्मी से लईकै नवा शत ई. कय देवनागरी तक एकर बहुत रूप मिलत हैं।

अर्थ औ प्रयोग

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'अ' कय प्रयोग अव्यय कय रूप में भी होत है। तत्पुरुष समास में नकार कय लोप होइकै खाली अकार रही जात है; अऋणी कय छोडी कय स्वर कय पहिले अ कय अन् होई जात है। तत्पुरुष में अ कय प्रयोग निचे दिहा छ विभिन्न अर्थ में होत है

(१) सादृश्य- अब्राह्मण। एकर अर्थ होय ब्राह्मण कय छोडी कय ओकरे सदृश दूसर वर्ण, (क्षत्रिय, वैश्य आदि)।

(२) अभाव- अपाप। पाप कय अभाव।

(३) अन्यत्व- अघट। घट छोडी कय दूसर पदार्थ, पट, पीठ आदि।

(४) अल्पता- अनुदरी। छोट पेटवालस्।

(५) अप्राशस्त्य- अकाल। खराब काल, विपत्काल आदि।

(६) विरोध- असुर। सुर कय विरोधी, राक्षस आदि।

इही तरह अ कय प्रयोग संबोधन (अ!), विस्मय (अ:), अधिक्षेप (तिरस्कार) आदि में होत है।

तत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता।
अप्राशस्त्यं विरोधश्च नर्ञ्थाा षट् प्रकीर्तिता।।

(पुंलिंग, संज्ञा) अर्थ में विष्णु कय लिए प्रयुक्त होत है। कहु-कहु अकार से ब्रह्मा कय भी बोध होत है। तंत्रशास्त्र कय अनुसार अ में ब्रह्मा, विष्णु औ शिव औ ओन कय शक्ति वर्तमान हैं। तंत्र में अ कय पर्याय सृष्टि, श्रीकंठ, मेघ, कीर्ति, निवृत्ति, ब्रह्मा, वामाद्यज, सारस्वत, अमृत, हर, नरकाटि, ललाट, एकमात्रिक, कंठ ब्राह्मण, वागीश औ प्रणवादि भी पाए जात हैं। प्रणव कय (अ+ उ+ म) तीन अक्षरन् में अ पहिला है। योग साधना में प्रणव (आे३म्) औ खाश कइकय् ओकर प्रथम अक्षर अ कय विशेष महत्व है। चित्त एकाग्र करेक लिए पहीले पूरा ओ३म् कय उच्चारण न कइ कय ओकरे बीजाक्षर अ कय जप कइ जात है।अईसन विश्वास कइ जात है कि एकरे जप से देह कय भीत्तर तत्व कफ, वायु, पित्त, रक्त अव शुक्र शुद्ध होई जात हैं औ एहसे समाधि कय पूर्णावस्था कय प्राप्ति होत है।

संदर्भ

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  1. हिंदी शब्दसागर, काशी नागरी प्रचारिणी सभा