मलिक मोहम्मद जायसी:संशोधन के बीच अंतर

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००:३५, १३ सितम्बर २०१४ कय अवतरण

भक्ति काल के निर्गुण प्रेमाश्रयी शाखा के कवि मलिक मुहम्मद जायसी केर जनम सन 1397 ई॰ और 1494 ई॰ के बीच अउर मृत्यु- 1542 ई. के बीच उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिला के जायस नगर के कंचना खुर्द मोहल्ला मा माना जात है

जायस नगर मोर अस्थानू। नगरक नाँव आदि उदयानू। तहाँ देवस दस पहुने आएऊँ। भा वैराग बहुत सुख पाएऊँ॥

ई कविता से ई स्पष्ट है की रायबरेली कै पुरान नाम उद्यान नगर रहा

भा अवतार मोर नौ सदी। तीस बरिख ऊपर कवि बदी।।

जायसी केर २१ रचनन केर के उल्लेख मिलत हैं जीमा पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। अपने अवधि में जायसी जी केर ग्रन्थ पद्मावत कै विशेष स्थान है। येहमा रानी पद्मावती केर प्रेम-कथा कै बसा रोचक वर्णन भवा है। रत्नसेन कै पहली मेहरारू नागमती के वियोग कै बड़ा अच्छा वर्णन है। जायसी के रचना-शैली पी आदिकाल के जैन कवियन की दोहा चौपाई पद्धति केर प्रभाव परा है। जायसी सैय्यद अशरफ़ का प्यारा पीर मानत रहे और खुद का उनके द्वार केर मुरीद बतावत है। उनहिन के शब्दन मा:-

सो मोरा गुरु तिन्ह हों चला। धोवा पाप पानिसिर मेला।। पेम पियालाया पंथ लखावा। अरपु चाखि मोहिं बूँद चखावा।।

जो मधु चढ़ा न उतरइ कावा। परेउ माति पसउं फेरि अरवा।।

एक जगह पै जायसी अपने बारे मा बड़े बिनम्र हवे कै कहत है:-

मुहम्मद मलिक पेम मधुभोरा। नाउँ बड़ेरा दरपन थोरा।। जेव- जेंव बुढ़ा तेवं- तेवं नवा। खुदी कई ख्याल न कवा।। हाथ पियाला साथ सुरांई। पेम पीतिलई आरे निबाही।। बुधि खोई और लाज गँवाई। अजहूँ अइस धरी लरिकाई।। पता न राखा दुहवई आंता। माता कलालिन के रस मांता।। दूध पियसववइ तेस उधारा। बालक होई परातिन्ह बारा।। खउं लाटउं चाहउं खेला। भएउ अजान चार सिर मेला।। पेम कटोरी नाइके मता पियावइ दूध। बालक पीया चाहइ, क्या मगर क्या बूध।।

ई पंक्तियन से लागत है कि जायसी प्रेम- मधु के भ्रमर रहे। जायसी संसार को अस्थिर मानत रहे, उनके हिसाब ते प्रेम और सद्भाव ही स्थिर है अउर रही, जबकि समुल्ला संसार अस्थिर है। संसार केर अस्थिरता का वर्णन उन्हीं के शब्दन मा देखा जाये –

यह संसार झूठ थिर नाहिं। तरुवर पंखि तार परछाहीं।। मोर मोर कइ रहा न कोई। जाऐ उवा जग अथवा सोई।। पानी जस बुलबुला होई। फूट बिस्मादि मिलहं जल सोई।। मलिक मुहम्मद पंथी घर ही माहिं उदास। कबहूँ संवरहि मन कै, कवहूँ टपक उबास।।

एक जगह पै चित्ररेखा मा उई अपने बारे मा लिखिन है:-

मुहमद सायर दीन दुनि, मुख अंब्रित बेनान। बदन जइस जग चंद सपूरन, एक जइस नेनान।

पद्मावत पदमावति सब सखी बोलाई । चीर पटोर हार पहिराई ॥ सीस सबन्ह के सेंदुर पूरा और राते सब अंग सेंदुरा ॥ चंदन अगर चित्र सब भरीं ।नए चार जानहु अवतारीं ॥ जनहु कँवल सँग फूली कूईं । जनहुँ चाँद सँग तरई ऊईं ॥ धनि पदमावति, धनि तोर नाहू । जेहि अभरन पहिरा सब काहू ॥ बारह अभरन, सोरह सिंगारा । तोहि सौंह नहिं ससि उजियारा ॥ ससि सकलंक रहै नहिं पूजा । तू निकलंक, न सरि कोई दूजा ॥

काहू बीन गहा कर,काहू नाद मृदंग । सबन्ह अनंद मनावा रहसि कूदि एक संग ॥1॥

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नखशिख खंड

का सिंगार ओहि बरनौं, राजा । ओहिक सिंगार ओहि पै छाजा ॥ प्रथम सीस कस्तूरी केसा । बलि बासुकि, का और नरेसा ॥ भौंर केस, वह मालति रानी । बिसहर लुरे लेहिं अरघानी ॥ बेनी छोरि झार जौं बारा । सरग पतार होइ अँधियारा ॥ कोंपर कुटिल केस नग कारे । लहरन्हि भरे भुअंग बैसारे ॥ बेधे जनों मलयगिरि बासा । सीस चढे लोटहिं चहँ पासा ॥ घुँघरवार अलकै विषभरी । सँकरैं पेम चहैं गिउ परी ॥

अस फदवार केस वै परा सीस गिउ फाँद । अस्टौ कुरी नाग सब अरुझ केस के बाँद ॥1॥

बरनौं माँग सीस उपराहीं । सेंदुर अबहिं चढा जेहि नाहीं ॥ बिनु सेंदुर अस जानहु दीआ । उजियर पंथ रैनि महँ कीआ ॥ कंचन रेख कसौटी कसी । जनु घन महँ दामिनि परगसी ॥ सरु-किरिन जनु गगन बिसेखी । जमुना माँह सुरसती देखी ॥ खाँडै धार रुहिर नु भरा । करवत लेइ बेनी पर धरा ॥ तेहि पर पूरि धरे जो मोती । जमुना माँझ गंग कै सोती ॥ करवत तपा लेहिं होइ चूरू । मकु सो रुहिर लेइ देइ सेंदूरू ॥

कनक दुवासन बानि होइ चह सोहाग वह माँग । सेवा करहिं नखत सब उवै गगन जस गाँग ॥2॥

कहौं लिलार दुइज कै जोती । दुइजन जोति कहाँ जग ओती ॥ सहस किरिन जो सुरुज दिपाई । देखि लिलार सोउ छपि जाई ॥ का सरवर तेहि देउँ मयंकू । चाँद कलंकी, वह निकलंकू ॥ औ चाँदहि पुनि राहु गरासा । वह बिनु राहु सदा परगासा ॥ तेहि लिलार पर तलक बईठा । दुइज-पाट जानहु ध्रुव दीठा ॥ कनक-पाट जनु बैठा राजा । सबै सिंगार अत्र लेइ साजा ॥ ओहि आगे थिर रहा न कोऊ । दहुँ का कहँ अस जुरै सँजोगू ॥

खरग, धनुक, चक बान दुइ, जग-मारन तिन्ह नावँ । सुनि कै परा मुरुछि कै (राजा) मोकहँ हए कुठावँ ॥3॥

भौहैं स्याम धनुक जनु ताना । जा सहुँ हेर मार विष-बाना ॥ हनै धुनै उन्ह भौंहनि चढे । केइ हतियार काल अस गढे ?॥ उहै धनुक किरसुन पर अहा । उहै धनुक राघौ कर गहा ॥ ओहि धनुक रावन संघारा । ओहि धनुक कंसासुर मारा ॥ ओहि धनुक बैधा हुत राहू । मारा ओहि सहस्राबाहू ॥ उहै धनुक मैं थापहँ चीन्हा । धानुक आप बेझ जग कीन्हा ॥ उन्ह भौंहनि सरि केउ न जीता । अछरी छपीं, छपीं गोपीता ॥

भौंह धनुक, धनि धानुक, दूसर सरि न कराइ । गगन धनुक जो ऊगै लाजहि सो छपि जाइ ॥4॥